Wednesday, April 26, 2023

सत्यनारायण व्रत कथा


 

“सत्यनारायण व्रत कथा व व्रत का महात्म्य विधि”


सत्यनारयण जी की आरती सहित

सामग्री

केले  के खम्भे  पंच पल्ल्व, कलश पंचरल चावल, कपूर, धूप,  पुष्पों  की माला श्रीफल,  ऋतुफल
अंग बस्त्र, नैवेध, कलावा आम के पत्ते, यघोपवीत, बस्त्र, गुलाब, के फूल दीप, तुलसी दल, पान, पंचामृत (दूध, दही, घृत, शहद , शक्कर ), केसर, बंदनवार, चौकी।

पूजा विधि है

व्रत  करने  वाला  पूर्णिमा व् संक्रांति के  दिन प्रात:  अथवा  सांयकाल को  स्नानदि से निवृत होकर पूजास्थान मे आसन पर बैठकर श्रद्धापूपर्वक श्री गणेश, गौरी, बरुन, विष्णु आदि सब देवताओं का ध्यान करके पूजन करें  और संकल्प करें की मैं सत्यनारायण स्वामी का पूजन तथा कथा - श्रवण सदैव करूँगा। पुष्प हाथ मे लेकर   नारायण का ध्यान करें, यघोपवीत, पुष्प, धूप, नैवैध आदि से युक्त होकर स्तुति करे - हे भगवान मैंने श्रद्धापूर्वक फल, जल आदि सब सामग्री आपको  अर्पण  की  है,  इसे स्वीकार कीजिये।  मेरा  आपको  बारम्बार नमस्कार है। इसके बाद सत्यनाराण जी की कथा पढ़े अथवा श्रवण करे।

सत्यनारायण व्रत कथा

पहला अध्याय

एक समय नैमिषारण्य  तीर्थ में शौनकादि अठासी हजार ऋषियों ने श्री सूत जी से पूछा - " हे प्रभु ! इस कलयुग में वेद - विद्या रहित मनुषयों को प्रभु भकित किस प्रकार मिलेगी तथा  उनका उद्धार कैसे होगा, इसलिए हे मुनि ! कोई ऐसा तप कहिए जिससे थोड़े समय में पुण्य प्राप्त होवे तथा मनबांछित फल मिले, वह कथा सुनने की हमारी इच्छा है।  सर्वशाश्त्रज्ञाता श्री सूत जी बोले "हे वैष्णवों में पूज्य ! आप सबने प्राणियों के हित की बाद पूछी है।  अब में उस श्रेष्ठ व्रत को आप लोगों से कहूंगा , जिस व्रत को नारदजी ने लक्ष्मीनारायण से पूछा था और लक्ष्मीपति ने मुनिश्रेष्ठ नारद से कहा था, सो ध्यान से सुने -एक समय योगिराज नारदजी दुसरो के हित की इच्छा से अनेक लोकों में घूमते हुए मृत्युलोक में पहुंचे।  यहां उनके यौनियो में जन्मे हुए प्राय: सभी मनुष्यों को अपने कर्मों दूारा अनेको दुखों से पीड़ित देखकर सोचा, किस यत्न के करने से निश्हय की प्राणियों  के दुखों का नाश हो सकेगा। ऐसा मन में सोचकर विष्णुलोक को गए।  वहां श्वेत वर्ण और चार भुजाओं बाले देवों के इष्ट नारायण को देखकर, जिनके हाथों में शंख, गदा और पदम थे तथा वरमाला पहने हुए थे, स्तुति करने लगे - हे भगबान! आप अत्यंत शकित से सम्पन हैं।  मन बानी भी आपको नहीं पा सकती, आपका आदि - मध्य - अंत नहीं हैं।  निर्गुण स्वरूप, सृष्टि के आदि भूति व् भक्तों के दुखों को नष्ट करने वाले हो।  आपको मेरा नमश्कार है। नारदजी से इस प्रकार की सूती सुनकर विष्णु भगवान बोले - " हे मुनीश्रेठ ! आपके मन में क्या है ? आपका किस काम के लिए आगमन हुआ है , नि:संकोच कहो।  " तब नारद मुनि बोले - " मृत्युलोक में सब मनुष्य जो उनके योनियों में पैदा हुए है, अपने - अपने कर्मो के द्वारा अनेक प्रकार के दुखो से दुखी हो रहे हैं।  हे नाथ ! मुझ पर दया रखते हो तो बतलाये की उन मनुष्यों के सब दुःख थोड़े से ही प्रयत्न से कैसे दूर हो सकते हैं। " श्री भगवान जी बोले - " हे नारद ! मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है।  जिस काम के करने से मनुष्य मोह से छूट जाता है वह मैं कहता हूँ, सुनो - बहुत पुण्य देने वाला स्वर्ग तथा मृत्युलोक दोनों में दुर्लभ एक उत्तम व्रत है।  आज में प्रेमवश होकर तुमस कहता हूँ।  सत्यनारायण का यह व्रत अच्छी तरह विधि -पूर्वक करके मनुष्य आयुपर्यन्त यहां सुख भोगकर मरने पर मोक्ष को प्राप्त होता है। "

   श्री भगवान के बचन सुनकर नारदमुनि जी बोले कि " उस व्रत का फल क्या है ? और क्या विधान है किसने ये व्रत क्या है और किस दिन ये व्रत करना चाहिए ? विस्तार कहि। " भगवन  बोले " दु:, शोक आदि को दूर करने वाला ये व्रत सब स्थानों पर विजयी करने वाला है।  भक्ति और श्रद्धा के साथ किसी भी दिन मनुष्य श्री सत्यनाराण कि प्रात: काल के समय ब्राहम्णो और बंधुओं के साथ धर्मपरायण होकर पूजा कर।  भक्ति भाव से नैवेद्य, केले का फल, घी, दूध और गेंहू का चूर्ण सवाया लेवे।  गेंहू के आभाव में सोठी का चूर्ण, शक्कर तथा गुड़ ले और सब भक्षण योग्य पदार्थ जमा करके भगवन को  अर्पण क़र देवे तथा बंधुओं सहित ब्राह्मणों को भोजन करावे, पश्चात स्वयं भोजन करे।  नृत्य, गीत आदि का आचरण क़र सत्यनारयण भगवन का स्मरण करते हुए समय व्यतीत करे।  इस व्रत करने पर मनुष्यों कि इच्छा निश्चय पूरी होती है। विशेषकर कलि-काल में भूमि पर यही मोक्ष का सरल उपाय है।  

“ॐ श्री हरि विष्णुविष्णु- विष्णु “ - प्रधम अध्याय सम्पूर्ण!


"दूसरा अध्याय"

 सूतजी बोलें "हे ऋषियोँ ! जिसने पहले समय में इस व्रत को क्या है उसका इतिहास कहता हूँ, ध्यान से सुनो।  सूंदर काशीपूरी नगरी में एक अत्यंत निर्धन ब्राहाण रहता था।  वह भूख और प्यास से बेचैन हुआ नित्य पृथ्वी पर घूमता था।  ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले भगवान ने ब्राहाण को दुखी देख क़र बूढ़े ब्राहाण क़र रूप धर उसके पास जा आदर के साथ पूछा - " हे विप्र ! नित्य दुखी हुआ पृध्वी पर क्यों घूमता है ? हे श्रेष्ठ ब्राहाण ! यह सब मुझसे कहो, मैं सुनना चाहता हूँ। " ब्राहाण बोला - " मै निर्धन ब्राहाण हूँ, भिक्षा के लिए पृथ्वी पर फिरता हूँ।  हे भगवन ! यदि आप इसका उपाय जानते हो तो कृपा क़र कहो। "  वृद्ध ब्राहाण बोला कि " सत्यनारायण भगवान  मनवांछित फल देने वाले हैं।  इसलिए हे ब्राहाण तू उनका पूजन क़र जिसके करने से मनुष्य सब दुखों से मुक्त होता है। " ब्राहाण को व्रत का सारा विधान बतलाकर बूढ़े ब्राहाण का रूप धारण करने वाले सत्यनारयण भगवन अंतर्ध्यान होगए।  जिस व्रत को वृद्ध ब्राहाण ने बतलाया है, मैं उसको करूगां, यह निश्चय करने पर उसे रात में नींद भी नहीं आई।  वह सवेरे उठ सत्यनारायण के व्रत का निश्चय क़र भिक्षा के लिए चला ।  उस दिन उसको भिक्षा में बहुत धन मिला जिससे बंधू - बांधवों के साथ उसने सत्यनारयण का व्रत किया।  इसके करने से  वह ब्राहाण सब दुखों से छूटकर उनके प्रकार कि सम्पतित्यों से युक्त हुआ।  उस समय से वह ब्राहाण हर मास व्रत करने लगा। इस तरह सत्यनारयण भगवन के व्रत को जो करेगा वह मनुष्य सब दुखों से छूट जायेगा।  इस तरह नारद जी से नारायण का कहा हुआ यह व्रत मैंने तुमसे कहा। हे विप्रों ! मैं अब और क्या कहूं।  ऋषि बोले - हे मुनीश्वर ! संसार में इस ब्राहाण से सुनकर किस - किस ने इस व्रत को किया , हम वह सब सुनना चाहते हैं।  इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा है।  सूत जी बोले - हे मुनियों !   जिस - जिस ने इस व्रत को किया है वह सब सुनो।  एक समय एक ब्राहाण  धन और ऐश्वर्य के अनुसार बंधू - बांधवों के साथ व्रत करने को तैयार हुआ उसी समय एक लकड़ी बेचने बाला बुड्ढा आदमी आया और लकड़ियों को रखकर ब्राहाण के मकान में गया। प्यास से दुःखी लकडहारा उनको व्रत करते देखकर ब्राहाण को नमस्कार क़र कहने लगा कि " आप यह क्या क़र रहे हैं और इसके करने से क्या फल मिलता है ? कृपा करके मुझसे खो। "ब्राहाण ने कहा - " सब मनोकामनों को पुरा करने वाला यह सत्यनारयण भगवान का व्रत है, इसकी ही कृपा से मेरे यहां धन - धान्य आदि की वृद्धि हुई। " ब्राहाण से इस व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ। चरणामृत ले और प्रसाद खाने के बाद अपने घर को गया।

लकडहारे ने अपने मन में इस प्रकार का संकल्प किया की आज ग्राम में लकड़ी बेचने से जो  धन मिलेगा उसी से सत्यनारयण देव का उत्तम व्रत करूंगा।  यह मन में विचारकर वह बूढ़ा आदमी लकड़िया अपने सिर पर रखकर ,

जिस नगर में धनवान लोग रहते थे, वह ऐसे सूंदर नगर में गया।  उस रोज वहां पर उसे उन लकड़ियों का दाम पहले दिनों  से चौगुना मिला।  तब वह बूढ़ा लकडहारा दाम ले और अत्ति प्रसन्न होकर पक्के केले की पुलि, घी शक्कर दूध दही और गेंहू का चूर्ण इत्यादि सत्यनारयण भगवान के व्रत की कुल सामग्रियों को लेकर अपने घर गया। फिर  उसने अपने भाइयोँ  को बुलाकर बिधि  के साथ भगवान जी का पूजन और व्रत किया।  उस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकडहारा धन, पुत्र आदि से युक्त  हुआ और संसार के समस्त सुख भोगकर बैकुंठ को चला गया   

“ॐ श्री हरि विष्णुविष्णु- विष्णु “ - दूसरा अध्याय सम्पूर्ण!

                                                            तीसरा अध्याय

सूतजी बोले - " हे श्रेष्ठ मुनियोँ ! अब आगे की कथा कहता हूँ, सुनो - पहले समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था।  वह सत्यवक्ता और जितेदिरनया था।  प्रतिदिन देव स्थानों पर जाता तथा गरीबों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था।  उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली और सती साध्वी थी।  भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनों ने श्री सत्यनारायण का व्रत किया।  उस समय में वहां एक साधु वैश्य आया।  उसके पास ब्यापार के लिए बहुत - सा  धन था।  वह नाव को किनारे पर ठहरा कर राजा के पास गया और राजा को व्रत करते हुए देखकर विनय के साथ पूछने लगा - हे राजन ! भक्तियुक्त चित से यह आप क्या कर रहे हैं? मेरी सुनने की इच्छा है ! सो आप यह मुझे बताइये। " राजा बोला- " हे साधु ! अपने बंधानवो के साथ पुत्रादि के प्राप्ति के लिए यह महाशक्तिवान सत्यनाराण भगवान का व्रत व् पूजन किया जा रहा है। " राजा के बचन सुनकर साधु आदर से बोला - " हे राजन ! मुझसे इसका सब विधान कहो, में भी आपके कथनानुसार इस व्रत को करूंगा। मेरे कोई संतान नहीं है और इससे निश्चय ही होग। " राजा से सब बिधान सुन व्यापर से निवृत हो बह आनंद के साथ घर गय।  साधु ने अपने स्त्री से  

संतान देने वाला उस व्रत का समाचार सुनाया और कहा की जब मेरे संतान होगी तब में इस व्रत को करूंगा।  साधु ने ऐसे बचन अपनी स्त्री लीलावती से कह।  एक दिन उसकी स्त्री लीलावती पीटीआई के साथ आनंदित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत होकर सत्यनाराण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई तथा दसवें महीने में उसके एक सूंदर कन्या का जन्म हुआ।  दिनों दिन वह इस तरह बढ़ने लगी जैसे शुक्लपक्ष का चंदरमा बढ़ता है।  कन्या का नाम कलवती रखा गया।  तब लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति से कहा की जो आपने संकलप किया था के भगवन का ब्रत करूगां। " अब आप उसे करिये।  साधु बोला, " हे प्रिये ! इसके विवाह पर करूँगा। " इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन दे वह नगर को गया।  कलावती पितृ -गृह में वृदि को प्राप्त हो गई।  साधु ने जब नगर में सखियोँ के साथ अपनी पुत्री को देखा तो तुरंत दूत बुलाकर कहा की पुत्री के वास्ते कोई सुयोग्य वर देखकर लाओ। साधु की आज्ञा पाकर दूत कंचन नगर पंहुंचा और वहा पर बड़ी खोज कर देखभाल कर लड़की के लिए सुयोग्य वणिक पुत्र को ले आया।  उस सुयोग्य लड़के को देखकर साधु ने अपने बंधू - बांधवों सहित प्रसन्नचित अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया , किन्तु दुर्भाग्य से विवाह के सयम भी उस व्रत को करना भूल गया।  तब श्री भगवान क्रोधित हो गए और श्राप दिया की तुम्हें दारुण दुःख प्राप्त होगा।  अपने कार्य में कुशल साधु वणिया जमाता सहित समुद्र के समीप स्थित रतनपुर नगर में गया और वहां दोनों ससुर - जमाई चंदरकेतु राजा के उस नगर में व्यापार करने लगे। एक रोज भगवान सत्यनारायण  की माया  से प्रेरित कोई चोर राजा का धन 

चुराकर भागा जा रहा था, किन्तु राजा के दूतों को आता देख कर चोर ने घबराकर भागते हुए राजा के धन को वहीं चुपचाप रख दिया चुराकर भागा जा रहा था, किन्तु राजा के दूतों को आता देख कर चोर ने घबराकर भागते हुए राजा के धन को वहीं चुपचाप रख दिया जहां वो ससुर - जमाई ठहरे हुए थे।  जब दूतों ने उस साधु वैश्य के पास राजा के धन को रखा देखा तो वे दोनों को बांधकर ले गए और प्रसनन्ता से दौड़ते हुए राजा के समीप जाकर बोले - यह दो चोर हम पकड़ कर लाये हैं  देखकर आज्ञा दें।  तब राजा की आज्ञा से उनको कठोर कारावास में डाल दिया और उनका सब धन छीन लिया।  सत्यनारयण भगवान के श्राप द्वारा उनकी पत्नी बह घर पर बहुत दुखी हुई और घर पर जो धन रखा था , चोर चुराकर ले ग।  शारारिक व् मानसिक पीड़ा तथा भूख -प्यास से अति दुखित हो अन्न की चिंता में कलावती एक ब्राहण के घर ग।  वहां उसने सत्यनाराण भगवान

ब्राहण  के घर गई ।  वहां उसने सत्यनाराण भगवान का व्रत होते देखा, फिर कथा सुनी तथा प्रसाद ग्रहण क्र रात को घर आई। माता ने कलावती से कहा -हे पुत्री ! अब तक कहाँ रही व् तेरे मन में क्या है ? कलावती बोली - हे माता ! मैंने एक ब्राहाण के घर श्री सत्यनाराण भगवन का व्रत देखा है।  कन्या के बचन सुनकर लीलावती भगवन के पूजन की तैयारी करने लगी।  लीलावती ने परिबार और बंधुओं सहित श्री सत्यनाराण भगवान का पूजन किया और वर माँगा की मेरे पति और दामाद शीघ्र आ जावें। साथ हे प्रार्थना की हम सबका अपराध क्षमा करो।  सत्यनाराण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गए और राजा चंदरकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा - हे राजन ! दोनों  वैश्योँ  को छोड़ दो और उनका सब धन जो तुमने ग्रहण किया है दे दो, नहीं तो मैं तेरा धन, राज्य, पुत्रादि सब नष्ट क्र दूंगा।  राजा से ऐसे बचन कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए।  प्रात: काल राजा चंदरकेतु ने सभा में अपना स्वप्न सुनाया, फिर दोनों वणिक पुत्रो को कैद से मुक्त कर सभा में बुलाया। दोनों ने आते ही राजा को नमस्कार किया।  राजा मीठे वचनों से बोला- हे महनुभवों ! भाबीवश ऐसा कठिन दुःख : प्राप्त हुआ है, अब तुम्हें कोई भय नहीं।  ऐसा कहकर राजा ने उनको नए -नए बस्त्राभूषण पहनाये तथा उनका जितना धन लिया था, उससे दुगना धन देकर आदर सहित विदा किय।  दोनों वैश्य अपने घर को चल दिए।

“ॐ श्री हरि विष्णुविष्णुविष्णु “ - तीसरा अध्याय सम्पूर्ण!


                                                                     "चौथा अध्याय"                           

सूत जी बोले - " वैश्य ने मंगलाचार करके यात्रा आरम्भ की और अपने नगर को चला। उनके थोड़ी दूर निकलने पर दण्डी वेषधारी सत्यनारायण ने उनसे पूछा - हे साधु ! साधु ! तेरी नाव में क्या है ? " अभिमानी वणिक हँसता हुआ बोला - " हे दण्डी ! आप क्यों पूछते हो।  क्या धन लेने की इचछा है ? मेरी नाव में तो बेल और पत्ते भरे हैं।  वैश्य का कठोर बचन सुनकर भगवान ने कहा- " तुम्हारा बचन सत्य हो। " दण्डी ऐसा कहकर वहां से दूर चले गये और कुछ दूर जाकर समुन्दर के किनारे बैठे गये।  दण्डी के जाने पर वैश्य ने नित्यक्रिया करने के बाद नाव को ऊँची उठी देखकर मूर्छित हो जमीन पर गिर पड़ा।  फिर मूर्छा खुलने पर अत्यंत शोक प्रकट करने लगा।  तब उसका दामाद बोला की आप शोक करें , यह दण्डी का श्राप है।  अत: उनकी शरण में चलना चाहिए तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी। दामाद के बचन सुन कर साधु वणिक दण्डी के पास पहुंचा और अंत्यंत भकित भाव से नमस्कार करके बोला - हे भगवान ! आपकी माया से मोहित ब्रहा आदि भी आपके रूप को नहीं जानते तब मैं अज्ञानी कैसे जान सकता हूँ ? आप प्रसन्न होइये, मैं सामर्थय के अनुसार आपकी पूजा करूंगा  मेरी रक्षा करो और पहले के समान नौका में धन भर दो।  उसके भक्तियुक्त वचन सुनकर भगवान प्रसन्न हो उसकी इच्छानुसार वर देकर अंतरध्यान हो गय।  तब उन्होंने नाव पर आकर देखा की नाव धन से परिपूर्ण है फिर वह भगवान सत्यनराण का पूजन कर साथियोँ सहित अपने नगर को चला।  अब अपने नगर के निकट पहुंचा तब दूत को घर भेजा।  दूत ने साधु के घर जा उसकी स्त्री को नमस्कार कर कहा की साधु अपने दामाद सहित इस नगर के समीप गए हैं।  ऐसा वचन सुन साधु की स्त्री ने बड़े हर्ष के साथ सत्यदेव का पूजन कर पुत्री से कहा - मै अपने पति के दर्शन को जाती हूँ।  तू कार्य पूर्ण कर शीघ्र आन।  माता के ऐसे वचन सुनकर कलावती प्रसाद छोड़कर पति के पास गई।  प्रसाद की अवज्ञा के कारण सत्यदेव ने रुष्ट हो  उसके पति को नाव सहित पानी मै डुबो दिया।  कलावती अपने पति को देखकर रोती हुई जमीन पर गिर गई।  इस तरह नौका को डूबा हुआ तथा कन्या को रोता देख साधु दुःखित हो बोला - हे प्रभु मुझसे या मेरे परिवार से जो भूल हुई है उसे क्षमा करो।  उसके दीन वचन सुनकर सत्यदेव प्रसन्न हो गये और आकाशवाणी हुई हे साधु ! तेरी कन्या मेरे प्रसाद को छोड़कर आई है इसलिए इसका पति अदृश्य हुआ है , यदि वह घर जाकर प्रसाद खाकर लौटे तो इसे पति अवश्य मिलेगा।ऐसी आकाशवाणी सुनकर कलावती ने घर पहुंचकर प्रसाद खाया।  फिर आकर पति के दर्शन किये तत्पश्ताप साधु ने बंधू - वान्धवों सहित सत्यदेव का विधिपूवर्क पूजन किया।  उस दिन से वह प्रत्येक पूर्णिमा को सत्यनारयण भगवान का पूजन एवं कथा करने लगा।  फिर इस लोक का सुख भोगकर अंत मै स्वर्गलोक का गया।

“ॐ श्री हरि विष्णुविष्णुविष्णु “ - चौथा अध्याय सम्पूर्ण!


पांचवां अध्याय

सूतजी बोले - हे ऋषियोँ ! मै और भी कथा कहता हूँ , सुनो ! प्रजापालन मै लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा थ।  उसने भी भगवान का प्रसाद त्यागकर बहुत दुख : पाया।  एक समय वन मै जाकर वन्य पशुओं का मारकर बड़ के पेड़ के निचे आया वहां उसने ग्वालों का भक्ति - भाव से बांधवों सहित सत्यनाराणजी का पूजन करते देखा।  राजा देखकर भी अभिमान वश वहां नहीं गया और न नमस्कार ही किया।  जब ग्वालों ने भगवान का प्रसाद उसके सामने रखा तो वह प्रसाद का त्यागकर अपनी सूंदर नगरी का चला।  वहीं उसने अपना सब कुछ नष्ट पाया तो वह जान गया की यह सब भगवान ने किया हैं।  तब वह विश्वास कर ग्वालों के समीप गया और बिधि पूर्वक पूजन कर प्रसाद खाया तो सत्य देव की कृपा से पहले जैसा था , वैसा ही हो गया फिर दीर्घ काल तक सुख भोगकर मरने पर स्वर्गलोक को गया।  जो मनुष्य इस परम् दुर्लभ व्रत को करेगा भगवान की कृपा से उसे धन - धान्य की प्राप्ति होगी।  निर्धन धनी और बंदी बंधन से मुकत होकर निर्भय हो जाता है। 

जिन्होंने पहले इस व्रत को किया अब उनके दूसरे जन्म की कथा कहता हूँ।  वृद शतानन्द ब्राहण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष को पाया।  उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर वैकुण्ठ को प्राप्त हुआ।  साधु नाम के वेशव् ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष को प्राप्त किया।  महराज तुंगध्वज ने स्वयं - भू होकर भगवान में भक्ति युक्त कर्म कर मोक्ष प्राप्त किया ।

    संतानहीनों को संतान प्राप्ति होती है।  तथा सब मनोरथ पूर्ण होकर अंत में         वैकुण्ठ धाम को जाता है।

।। इति श्री सत्यनारयण व्रत कथायें सम्पूर्ण ।। बोलिये सत्यनरायण भगवान की जय!